झाबुआ/इंदौर।संजय जैन सह संपादक। प्रसंग तो था ऐतिहासिक उपन्यासों के प्रामाणिक लेखक-व्यास सम्मान से अलंकृत शरद पगारे के स्मृति दिवस पर उन्हें याद करने का, लेकिन साहित्यकारों में चलने वाली खेमेबाजी और पगारेजी के साहित्य की उपेक्षा की चर्चा में वामपंथी खेमा निशाने पर आ गया। मप्र साहित्य अकादमी के निदेशक डॉ. विकास दवे ने तो यहां तक कह दिया कि पगारे जी को जो सम्मान मिलना था वो उन्हें जीते जी नहीं मिला। वामपंथियों ने पगारे जी की सराहना तो की लेकिन उनके लिखे को सम्मान लायक नहीं समझा, जबकि उनका लेखन आचार्य चतुरसेन की अपेक्षा प्रामाणिक था। 

सम्मान नहीं मिला जिसके वो हकदार थे

प्रेस क्लब में आयोजित शरद पगारे स्मृति प्रसंग के अन्य दो वक्ताओं कमेंटेटर सुशील दोषी और इलाहाबाद विवि के प्राध्यापक सुनील विक्रम सिंह ने भी माना दिल्ली में नहीं रहते हुए भी अपने लेखन की बदौलत उन्होंने ख्याति पाई थी।बड़ा पाठक समूह उनके लेखन का कायल था,लेकिन उनका लिखा खेमेबाजी में उलझ कर रह गया उन्हें वो सम्मान नहीं मिला जिसके वो हकदार थे। 

वामपंथी खेमे ने नजरअंदाज किया

डॉ.दवे ने कहा पगारे जी का स्मरण करना पूरी साहित्य परंपरा को याद करना है।ऐतिहासिक उपन्यास लेखन बेहद चुनौतीपूर्ण होता है।पगारे जी को ना तो उतना रेखांकित किया गया और ना ही समय पर याद किया गया। उनके लेखन को वामपंथी खेमे ने नजरअंदाज किया किंतु केके व्यास सम्मान ने उनकी प्रतिष्ठा बड़ा दी। हमारे कई लेखकों ने तो आक्रांताओं को भी अपने लेखन से महिमामंडित किया, किंतु पगारे जी ने बताया ऐतिहासिक प्रसंग पर लिखने में कैसी न्यायदृष्टि होनी चाहिए...?

एक भूल राष्ट्र के मान के अपमान का कारण बनी

ऐतिहासिक उपन्यासकार-लेखक आचार्य चतुरसेन ने सोमनाथ मंदिर को तोड़ने आए आक्रांता पर लिखा जरूर लेकिन उन्होंने इस उपन्यास में झूठ परोसा। उन्होंने लिखा कि जब तीर्थ क्षेत्र पर आक्रांता ने हमला किया तब पंडित भाग गए, जब कि पंडितों ने लड़ाई लड़ी और शहीद भी हुए थे। चतुरसेन के लेखन की एक भूल राष्ट्र के मान के अपमान का कारण बन गई। इसके विपरीत पगारे जी की उदारता, इतिहास का लेखन करने वालों को याद रखना चाहिए कि राष्ट्र की गरिमा का अपमान ना करें। पगारे जी की ऐतिहासिक दृष्टि ही उन्हें शरद पगारे बनाती है।उन्हें समय से पहले और समय से रेखांकित नहीं किया गया। 

चंदन है तो महकेगा ही, आग में हो या आंचल में

प्रयागराज से आए प्राध्यापक सुनील विक्रम सिंह ने किस्सा सुनाया कि पगारे जी जब इलाहाबाद गेस्ट हाउस में पांच दिन रहे थे तब वहां के स्टॉफ को आश्चर्य होता था कि कितने लोग, स्टूडेंट उनसे रोज मिलने,ऑटोग्राफ लेने आते हैं। गुलारा बेगम,पाटलीपुत्र की साम्राज्ञी उनके ऐसे उपन्यास रहे हैं जो हमेशा सराहे जाते रहे हैं। गुलारा बेगम के ग्यारह संस्करण प्रकाशित होना उनके लेखन की लोकप्रियता को दर्शाता है,  गुलजार, फारुख शेख, अनूप जलोटा आदि उनके दीवाने थे। उनके लेखन को लेकर एक कवि की पंक्ति सुनाई कि चंदन है तो महकेगा ही, आग में हो या आंचल में। सिंह ने कहा मैं अपनी मां के नाम से हर साल पुरस्कार देता हूं। पगारेजी के नाम पर भी परिजन पुरस्कार घोषित करें।

क्रिकेट में जैसे तेदुलकर एक ही है, वैसे ही साहित्य की दुनिया में शरद पगारे

क्रिकेट कमेंटेटर सुशील दोषी का कहना था जैसे क्रिकेट में तेदुलकर एक ही है, वैसे साहित्य की दुनिया में शरद पगारे हैं। पगारे जी ने वो काम किया जो दूसरे नहीं करते। उनका लेखन अच्छा, दीर्घकालीन और प्रामाणिक है। इंदौर का नाम क्रिकेटरों से लिया जाता था, साहित्य को याद करते हुए शरद पगारे, राजेंद्र माथुर से शहर की पहचान याद आती है। अब गलाकाटू स्पर्धा में पैसे का महत्व बढ़ जाने से इंसानियत कम होती जा रही है। आज लोग बस कहना तो चाहते हैं सुनना नहीं चाहते। 

आभार माना

प्रारंभ में अतिथियों का स्वागत दीपक कर्दम, प्रदीप जोशी ने किया। स्वागत भाषण अरविंद तिवारी ने दिया। संचालन मुकेश तिवारी ने किया और आयोजक सुशीम पगारे ने आभार माना ।