कबीर को सुनना  बेहद आसान लेकिन समझना और जीवन में अपनाना उतना ही चुनौतीपूर्ण

झाबुआ/इंदौर।संजय जैन-स्टेट हेड। यह एक तरह से दुर्लभ संयोग ही था कि कबीर की वाणी को देश दुनिया में पहुंचाने वाले वो तीन गायक एक ही मंच पर थे।आपको ज्ञात हो कि करीब 14 वर्षो के अंतराल में ही इन तीनों कबीर  गायकों को भारत सरकार पद्मश्री सम्मान भी प्रदान कर चुकी है।कबीर को जन जन तक पहुंचाने वाले यह तीन  गायक प्रह्लाद सिंह टिपानिया, कालूराम बामनिया और भेरु सिंह चौहान दशकों से कबीर और कबीर समान अन्य संतों की वाणी को जन जन तक सतत पहुंचा रहे हैं । इन तीनों लोक गायकों का इतने सालो का अनुभव यही रहा है कि आज मानव समाज पूरी तरह से भटक चुका है और कबीर को समझ ही नहीं पा रहा है।कबीर को गाने-गुनगुनाने, सीडी सुन लेने से ही कुछ नहीं होगा। जरूरी तो यह है कि उनकी वाणी को महसूस किया जाए। समाज कबीर को सुनता तो है लेकिन उनके संदेश को जीवन में अपनाना नहीं चाहता। 

कुछ भी मान-सम्मान है मालवा की सौगात ही है

गत दिनों इन तीनों कबीर गायकों को चाय पर चर्चा में प्रेस क्लब ने आमंत्रित किया था। तीनों ने एकमत से स्वीकारा कि मालवी बोली का यह पुण्य प्रताप ही है कि हमने कबीर को मालवी में ही गाया और इसी कारण पद्मश्री सम्मान भी मिला। यह सम्मान हमारी गायकी से ज्यादा मालवी बोली, हमारे श्रोताओं का है।ये जो कुछ भी मान-सम्मान है मालवा की सौगात है। श्रोता इस बोली को भले ही ना समझे, लेकिन इसे गले लगा लेते हैं। अमेरिका में प्रोग्राम था वहाँ श्रोताओं में जवान लड़कियां भी थीं जब वे गले मिलीं तो मैं अचकचा गया। उनका कहना था कि दो सौ साल के इतिहास में पहली बार आप के गाये गीतों ने हमारे मन को छुआ है। उस अनुभूति को व्यक्त कर पाना बेहद मुश्किल है। 

कबीर गायन मैं कभी भी नहीं छोड़ूगा

टिपानिसा का कहना था कि कबीर को गाने वालों को कौन कितना ओब्लाइज करता है...? कुमार गंधर्व ने भी देवास जाने से पहले कब और कहाँ गाया कबीर को उनकी आज देश को अति आवश्यकता है। जनसेवक तो बहुत हैं, लेकिन कबीर की बातों को अमल में लाने वाले कितने हैं...? मैं चुनाव लड़ा, नहीं जीता, लेकिन अनुभव मिला। सब कुछ छोड़ सकता हूं लेकिन कबीर गायन मैं कभी भी नहीं छोड़ूगा। मैं जिस मुकाम तक पहुंचा हूं, उसमे समाज परिवार और मीडिया का सराहनीय योगदान है। 

कभी सोचा नहीं था…!

महू के भेरु सिंह चौहान का कहना था कि कभी सोचा नहीं था, पद्मश्री क्या होता है ..? इसके बारे में पता भी नहीं था।कबीर गायन पर पद्मश्री मिलना मेरे लिये ही नहीं देश की भी बड़ी उपलब्धि है। रात में मेरे बड़े बाबूजी, पिताजी, गेंदा काका, धोला काका और नंदू भील अलाव जला कर हुक्का पीते और पिताजी तंबूरे पर भजन गाते थे तब गांव में ना बिजली थी ना हैंडपंप । मैं तो बच्चा था, तंबूरा लाकर दे देता और सिर्फ मंजीरे बजाता था। बाबा राम भजन गया करते थे, फिर उन्हें कबीर के भजन अच्छे लगने लगे थे। जब जबलपुर में पहला कैसेट बना था तब मार्केट में काफी हलचल मची थी।मैं रामा पीर के भजन रिकार्ड कराने गया था लेकिन संतुष्टि नहीं मिली। यह अवार्ड तो आप सब का है। जब मुझे पता चला कि मुझे पद्मश्री दे रहे हैं, तब से शायद ही ऐसा कोई दिन गया हो जब बधाई के फोन, सम्मान का सिलसिला न चल रहा हो।

देवास के कालूराम बामनिया का दर्द..?

कालूराम बामनिया ने यह अनुरोध किया कि मालवी मीठी बोली है। हम जहां भी जाते हैं वहां के लोग अपनी क्षेत्रीय बोली में बात करते हैं,लेकिन हम मालवी बोलने में क्यों शर्म महसूस करते हैं...?
यह भी दुख है कि इतने सालों बाद भी लोग कबीर को समझ नहीं पा रहे हैं। कबीर जाति के नासूर का शिकार हो रहे हैं।इन संतों ने जाति-धर्म-पंथ आदि से ऊपर उठने मानव मात्र से प्रेम का संदेश अपने भजनों में, साखियों में, गुरुवाणी में दिया है लेकिन समाज ने तो इन संतों को ही जातियों में बांटने का काम किया है।आज संत भी जाति के मुताबिक देखे जाते हैं। 

कबीर अकादमी स्थापित हो

तीनो कबीर गायक टिपानिया, बामनिया और चौहान का कहना था की जैसे उज्जैन में कालिदास अकादमी स्थापित है उसी तरह कबीर अकादमी भी स्थापित की जानी चाहिए।अपने स्तर पर हम कबीर यात्रा, कबीर महोत्सव आयोजित कर रहे हैं लेकिन सरकार को हर जिले में कबीर उत्सव आयोजित करना चाहिए। कबीर गायकी परंपरा को समृद्ध करने के लिये कुछ करना चाहिए। 

पद्मश्री से कब -कौन हुआ सम्मानित...? 

2011  प्रह्लाद सिंह टिपानिया को भारत सरकार द्वारा पद्मश्री पुरस्कार द्वारा सम्मानित किया गया।वे विश्व में लोकगायक के रूप में पहचान बना चुके हैं।
2024 देवास के कालूराम बामनिया को पद्मश्री पुरस्कार से सम्मानित किया गया। वे खेतीहर मजदूर हैं। प्रशंसक उन्हें 'मालवा का कबीर' भी कहते हैं।
2025  महू तहसील के छोटे से गांव बजरंगपुरा के भैरू सिंह चौहान को पद्मश्री पुरस्कार द्वारा सम्मानित किया गया। उन्हें पिता मादू चौहान से गायन विरासत में मिला है।

पर्दे के पीछे हैं डॉ.सुरेश पटेल

सुरेश पटेल एक ऐसा नाम है जो कबीर का संदेश लोक गायकों के माध्यम से जन जन तक पहुंचाने का काम पर्दे के पीछे रह कर 90 के द़शक से कर रहे हैं। तब टिपानिया जी संकोची-नए गायक थे । एकलव्य मंच (देवास) में कबीर भजन हर महीने की दो तारीख को होता था। वहां डॉ.पटेल ने पहले टिपानिया का गायन कराया, सफलता मिलती गई, तीन चार सौ भजन मंडलियां आने लगीं। टिपानिया जी कैसेट क्या होता है यह  वे नहीं जानते थे। उनका पहला कैसेट ‘कबीरा सोई पीर’ निकाला था तब से कबीर जनप्रिय होते गए। कबीर की बातें संविधान सम्मत हैं इसलिये मैं इस काम से लोगों को निरंतर जोड़ने, लोक गायकों को मंच प्रदान करने, आमजन से परिचय कराने का काम बिना किसी चाहत के वर्षों से कर रहा हूं।