झाबुआ।संजय जैन-स्टेट हेड। देश के बेहतरीन शायर वसीम बरेवली की शायरी के कद्रदां सात समंदर पार तक हैं।परसो रात वो शहर में एक महफिल में अपने शेर-गजल सुना रहे थे।बाद में उनकी शायरी को सुरों में सजाने वाले मशहूर गजल गायक अहमद हुसैन-मोहम्मद हुसैन ने वो रंग जमाया कि खुद बरेलवी बार बार वाह-वाह और जिंदाबाद कहते रहे।शहर में सुरुचिपूर्ण कार्यक्रम तो आए दिन होते रहते हैं। सुनने और सुनाने वालों को खूब दाद भी मिलती है,लेकिन उस रात शब ए सुखन की जो महफिल जमी वो कुछ अनूठी इसलिये भी थी कि ये लिखने-सुनाने और सुनने वालों की त्रिवेणी थी।
 
हर शेर पर सुनने वाले वाह..वाह करते रहे

वसीम बरेलवी की शायरी में अध्यात्म था, जिंदगी की मुश्किलें भी थी और हर हालात का सामना करने का हौंसला भी था।उनके हर शेर पर सुनने वाले वाह..वाह करते रहे।उनके कुछ शेर मुलाहिजा फरमाइये-बड़ी तो है गली कूंचों की रौनक, मगर इंसान तन्हा हो गया है। अगला शेर था-दिए अपने लिए रोशन किये थे, उजाला दूसरों का हो गया है। एक शेर और देखिये,मेरे बस में हो तो मैं जाऊं न दुनिया छोड़ कर/जब तलक न रख दूं,सब टूटे दिल जोड़ कर।एक शेर यह भी-बातों बातों में जहां बात बिगड़ जाती है/फिर बनाओ भी तो वो बात कहां आती है।एक गजल का शेर है-खफा तो क्या खफा सा हो गया है/ताल्लुक कितना गहरा हो गया है। जरा लड़ने की दिल ने क्या ठान ली/तो बड़ा खतरा जरा सा हो गया है।

श्रोता इस गजल पर तो देर तक वाह-वाह करते रहे

ज़माना   मुश्किलों  में  आ  रहा   है 
हमें  आसान   समझा  जा  रहा   है

जिधर जाने  से  दिल क़तरा  रहा है
उसी जानिब  को रस्ता  जा  रहा  है 

किसी  का साथ  पाने की ललक में 
कोई  हाथों  से निकला  जा रहा  है

मिला  दी  ख़ाक  में  जिसने  बहारें 
उसे   फूलों   में  तोला  जा  रहा  है 

जिसे  महसूस  करना  चाहिए   था 
उसे  आँखों  से   देखा  जा  रहा  है 

तुझे   क़तरा   भुनाने  की   पड़ी है 
तेरे   हाथों  से   दरिया  जा  रहा  है 

मरहूम डॉ राहत इंदौरी को याद किया

लंबे समय बाद इंदौर आए वसीम बरेलवी ने अपने दोस्त शायर मरहूम डॉ राहत इंदौरी को तो याद किया ही, इंदौर से जुड़ी अपनी यादों का जिक्र करते हुए उन्होंने कहा सबसे पहले महू आना हुआ, तब इंदौर होकर ही जाते थे। जिस शहर में अदब/साहित्य की  परवरिश होती हो वो शहर कभी भी कमजर्फियों का शिकार नहीं हो सकता। अहले इंदौर से माफी चाहता हूं कई मौकों पर नहीं आ सका। गजल गायक हुसैन भाइयों के लिए कहा पद्मश्री इनके नाम पर सजता है। बरेलवी ने तरन्नुम में गजल भी सुनाई। श्रोता उनसे देर तक सुनना तो बहुत कुछ चाहते थे लेकिन समय का बंधन और अहमद-मोहम्मद हुसैन भी बरेलवी की गजलों को पेश करने का इंतजार कर रहे थे। शहर के संगतकारों की तारीफ करते हुए इनका कहना था हमें लग ही नहीं रहा कि हम जयपुर से आए हैं,ये सब साथ के लग रहे हैं। 

बरेलवी की तीन गजलें सुनाई

पद्मश्री अहमद हुसैन-मोहम्मद हुसैन ने एक के बाद एक बरेलवी की तीन गजलें सुनाई । जिसमे  पहली जरा सा कतरा कहीं आज उभरता है समंदर मे, दूसरी गजल थी जमाना मुश्किलों का आ रहा है,तीसरी गजल सुनाई आंखों को ये सब कौन बताने देगा, ख्वाब जिसके हैं वही नींद ना आने देगा। इसके बाद उन्होंने  बेहद लोकप्रिय गजल मैं हवा हूं कहां वतन मेरा और चल मेरे साथ ही चल, ए मेरी जान ए गजल । 

सुनने वाले फिर भी प्यासे रह गए

देश-विदेश में बड़े नेताओं के भाषण, कलाकारों को सुनने के लिये जिस तरह सशुल्क आयोजन किये जाते हैं, यह महफिल भी वैसी ही थी।बमुश्किल तीन घंटे में बरेलवी का रचना पाठ, हुसैन बंधुओं का गजल गायन भी हो गया। सुनने वाले फिर भी प्यासे रह गए।